Success Story: कृषि में जैविक खाद का उपयोग, जानिए नागेंद्र पांडेय की सफलता की कहानी

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Success Story: कृषि में जैविक खाद का उपयोग, जानिए नागेंद्र पांडेय की सफलता की कहानी

आज देश में रासायनिक खेती से इंसान और खेत को हो रहे नुकसान ने साफ कर दिया है कि अब वक्त मूल की ओर लौट कर उसे अपने आधुनिक तरीके से इस्तेमाल करने का है. जरा सोचिए, खेती तो तब भी होती थी जब रासायनिक खाद और जहरीले कीटनाशक उपलब्ध नहीं थे. तब गोबर किसानों के लिए बेहतर खाद का काम करता था. नीम और हल्दी उनके लिए प्रभावी कीटनाशक थे. आज हम एक ऐसे ही कृषि में ग्रेजुएट व्यक्ति के बारे में जानेंगे जिन्होंने जोखिमों की परवाह ना करके अलग रास्ता अपनाया और अपने लक्ष्य को हासिल किया. उत्तर प्रदेश के जिला महाराजगंज मुख्यालय से 15 किलोमीटर दूर नंदना गांव के निवासी नागेंद्र पांडेय ने न सिर्फ अपनी खेती की विधि में सुधार किया बल्कि आस-पास के लोगों को जैविक खाद मुहैया कराकर रसयान मुक्त खेती की एक नई पहल की. वर्मी कंंपोस्ट से कैसे लाखों रुपये कमाए जा सकते हैं, आइए नागेंद्र पांडेय की सक्सेस स्टोरी से जानते हैं.

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Success Story: कृषि में जैविक खाद का उपयोग, जानिए नागेंद्र पांडेय की सफलता की कहानी
Success Story: कृषि में जैविक खाद का उपयोग, जानिए नागेंद्र पांडेय की सफलता की कहानी

केमिकल खेती में घटते मुनाफे से नई सोच

नागेंद्र पांडेय ने किसान तक को बताया कि उन्होंन कृषि विषय में स्नातक किया और फिर नौकरी की तलाश शुरू कर दी. 15 साल तक उन्होंने एक अच्छी नौकरी ढूंढी लेकिन उनकी ये तलाश पूरी नहीं हुई. इसके बाद उन्होंने अपनी पुश्तैनी जमीन पर खेती करनी शुरू कर दी. उन्हें पता था कि सिर्फ सामान्य तरीके से खेती करके इतनी कम जमीन पर वे ज्यादा कमाई नहीं कर सकते हैं. इसलिए उन्होंने सोचा कि क्यों न खेती में ही कुछ ऐसा किया जाए कि आमदनी भी अच्छी हो और खेती में नया प्रयोग भी हो. कुछ अलग करने की सोच रखने वाले नागेंद्र ने देखा कि अक्सर छोटी जोत के किसान खाद और रसायनों की किल्लत से दो चार हो रहे हैं. इसके बावजूद महंगी खादों का प्रयोग करने से भी किसानों को अपेक्षित उत्पादन और लाभ नहीं मिल पा रहा है.

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वर्मी कंपोस्ट से मिला बेहतर विकल्प

नागेंद्र ने इसका भी तोड़ निकाल लिया. उन्होंने फैसला लिया कि वे जमीन के कुछ हिस्से पर जैविक खाद तैयार करेंगे और बाकी बचे हिस्से पर जैविक तरीके से खेती करेंगे. उन्होंने वर्मी कंपोस्ट बनाने का फैसला कर लिया, लेकिन उनके मन में यह डर भी था कि क्या वो इस काम में सफल हो पाएंगे, क्योकि उनको वर्मी कंपोस्ट के बारे में जानकारी नहीं थी. यह एक जोखिम भरा काम था, क्योंकि इसमें सफलता मिलेगी या नहीं, यह कहना मुश्किल था. लेकिन नागेंद्र ने फैसला कर लिया कि वे इस जोखिम भरे रास्ते पर चलेंगे. फिर अपने गांव की जमीन को चुना और वर्मी कंपोस्ट बनाने के काम में लग गए.

चालीस केंचुए ने बदल दी जिंदगी

साल 2000 में नागेंद्र ने फैसला लिया कि वे जमीन के कुछ हिस्से पर जैविक खाद तैयार करेंगे और बाकी बचे हिस्से पर जैविक तरीके से खेती करेंगे. इस तरह की वर्मी कंपोस्ट खाद बनाने के लिए शुरू में उन्हें केंचुओं की ज़रूरत थी. इसके लिए उन्होंने कृषि और उद्यान विभाग से संपर्क किया, लेकिन उन्हें यहां से केंचुए नहीं मिल पाए. इसके बाद उनके एक दोस्त ने उन्हें लगभग 40-50 केंचुए दिए. नागेंद्र ने इन केंचुओं को चारा खिलाने वाली नाद में गोबर और पत्तियों के बीच डाल दिया और 45 दिनों में इनसे लगभग 02 किलो केंचुए तैयार हो गए. फिर इसी एक बेड से वर्मी कंपोस्ट से शुरुआत की. वे आज करीब एक एकड़ में 500 बेड बना चुके हैं. आज वे लाखों का बिजनेस करते हैं.

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पहले जगाई जैविक खेती की अलख

यह सफर आसान नहीं था. शुरुआत में लोगों ने उत्साह नहीं दिखाया. लोगों के उत्साह न दिखाने और सहमत न होने के पीछे एक बड़ी वजह थी. दरअसल लोग ज्यादा उत्पादन के लिए गैर ऑर्गेनिक और केमिकल फर्टिलाइजर का बड़े स्तर पर इस्तेमाल करते रहे हैं. लोगों को लगता रहा है कि कि केमिकल ही सही है और वर्मी कंपोस्ट से बने खाद

से कोई लाभ नहीं. ऐसे समय में नागेंद्र ने एक रणनीति बनाई. उन्होंने फैसला लिया कि वे गांव-गांव घूमेंगे और लोगों को वर्मी कंपोस्ट से बनने वाली खाद के फायदे के बारे में बताएंगे. उन्होंने अपनी रणनीति पर काम किया, लेकिन शुरुआत में लोगों को वे समझा नहीं पाए. नागेंद्र ने लोगों से कहा कि वे वर्मी कंपोस्ट से बनाने वाली खाद को एक बार इस्तेमाल करें और अगर कोई फायदा न लगे तो वे इस्तेमाल करना छोड़ दें. उनकी यह मेहनत रंग लाई, किसानों को वर्मी कंपोस्ट इस्तेमाल से फायदा मिला तो वर्मी कंपोस्ट की मांग बढ़ने लगी और काम चल पड़ा.

60 दिन में तैयार होता है वर्मी कंपोस्ट

नागेंद्र पांडे ने बताया कि वर्मी कंपोस्ट इकाई का प्रत्येक बेड 10 फीट का बनाया जाता है, जिसके लिए आज भी आसपास के गांव के गोबर का उपयोग किया जाता है. एक ट्रॉली गोबर की कीमत करीब 1200 रुपये है, जिसे क्यारी में डालकर खाद बनाई जाती है. 60 दिन में गोबर वर्मी कंपोस्ट बन जाता है. उन्होंने बताया कि इस खाद की पैकेजिंग और मार्केटिंग का काम भी यहीं से होता है. यहां मिलने वाली खाद की 30 किलो की बोरी की कीमत 210 रुपये होती है. इसके अलावा 35 लोगों को काम मिला है, जिनमें 25 महिलाएं हैं.

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वर्मी कंपोस्ट खेतों के लिए रामबाण

नागेंद्र बताते हैं कि उनके यहां बनाई जाने वाली खाद की यह खास बात है कि वे इसकी गुणवत्ता का पूरा खयाल रखते हैं. वे समय-समय पर खाद की गुणवत्ता की जांच कराने के लिए उसका लैब टेस्ट भी कराते रहते हैं. इस खाद में 1.8 प्रतिशत नाइट्रोजन, 2.5 प्रतिशत फास्फोरस और 3.23 प्रतिशत पोटाश पाया गया है. इसलिए इस खाद से पौधों की बढवार और उपज दोनों अच्छी होती है. नागेंद्र का कहना है कि वर्मी कंपोस्ट के जरिए खेतों के लिए जरूरी कई तरह के पोषक तत्व प्राकृतिक तौर पर मिल जाते हैं. इसके लिए केमिकल पर आश्रित होने की मजबूरी नहीं होती हैं.

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